Sunday, October 27, 2013

मुहब्बत रहती कहाँ

कोई बता दे पता
मुहब्बत रहती कहाँ
ढूंढ़ रहा हूँ मैं
वर्षो से उसका पता

दिल की बेकरारी है
राते जग कर गुजारी हैं
तिस्नगी को भी बढाया
तब भी ना पता लग पाया

सूरज, तारो, चाँद, तारो से पूछा
घूमते हो तुम पूरे जहाँ में
कभी कही किसी मोड़ पर
मिला तुम्हे मुहब्बत का पता

पर्वत,मोसम,पेड और पन्छी
धुप ,छाव,सर्दी और गर्मी
सबसे मैंने बस यही पूछा
बताओ मुहब्बत रहती कहाँ

धीमे धीमे होले होले
सब मंद मंद मुस्काते है
लगता है मालूम है इनको
किन्तु मुझको नहीं बताते है

सरिता , सागर  और तालाब
सबके गया किनारों पर
वही पवन  ने फुसफुसाकर
मुझको बस इतना कहाँ

मुहब्बत मिलती नहीं
बस हो जाती है
दिल को एक पल में
दीवाना कर जाती है

तब मेरे दिल ने हँस कर कहा
जिसका तू ढूंढ़ रहा था पता
वो रहती हरदम मुझमे
कभी अंदर आने की जेहमत उठा

डॉ शौर्य मलिक 

9 comments:

  1. कविता पढ़ते समय जेहन में वही बात थी ,जो आपने अंत में कही है
    अब कमेंट क्या करूँ
    हार्दिक शुभकामनायें

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  2. बिल्कुल सही कहा......
    मुहब्बत की नहीं जाती ...हो जाती है ...

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  3. वाह... उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...

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  4. बेहतरीन और लाजवाब ।

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  5. मुहब्बत हो जाती है ... ये दर्द ले के आती है ... खुशियां दे जाती है ...

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  6. सही उदगार ...
    मंगलकामनाएं !!

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  7. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति, बधाई.

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  8. काफी उम्दा रचना....बधाई...
    नयी रचना
    "अनसुलझी पहेली"
    आभार

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